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छंद 184 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(अज्ञातयौवना नायिका-वर्णन)

आवती-जाती नितै बन-देखन, आजुई चंप परे कत पीले।
त्यौं इन कुंज न कूजत कोकिल, क्यौं कल कूजन मैं गरबीले॥
भेद कहौ हम सौं तुम याकौ, अहो मनभावन छैल-छबीले!।
घाँघरी-ढीली बिलोकि कहा, इन सौतिन के मन ह्वै गए ढीले॥

भावार्थ: हे नटनागर श्याम! इसका भेद कृपा कर बतलाइए कि मैं वन की शोभा को देखने के लिए नित्य ही इस पथ से आती-जाती रही, पर आज ही चंपक के पुष्प क्यों पीले पड़े जाते हैं? और क्यों अपने कलित स्वर पर गर्व करनेवाली कोकिलें आज इन कुंजों में नहीं कूजतीं? तथा मेरी घाघरी को ढीली देख इन सौतों के मन क्यों ढीले (फीके) हो गए हैं? इन पदों से सूचित होता है कि नायिका रूपगर्विता है, जो चंपक के पीत होने, कोकिलों के मौनावलंबन और सौतों में शैथिल्य के कारण अपने वर्ण, स्वर और रूप (यौवनागम के कारण) तथा कटि क्षीणता को यथाक्रम ठहराती है।