भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 197 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:10, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किरीट सवैया
(वर्तमान गुप्ता नायिका-वर्णन)

आई बिलोकनि कुंज इतै, हुते लाल उछारते कंदुक जा महिँ।
ताहि लै ऊपर हीं ‘द्विजदेव’ पराइ चली हौं निकुंज के धामहिंँ॥
ज्यौं इत आइ गह्यौ करिहा, करि-हाँ तिमि हौं हूँ झुकी गहि दामहिँ।
गैंद-चुराइ तनी के तरैं, पैं भले-ई-भले सिखए गुन स्यामहिँ॥

भावार्थ: हे सखी! आज जो मैं कुसुमित कुंज की शोभा देखने को आई तो वहाँ श्री कृष्णचंद्र गेंद खेलते हुए मिले। क्रीड़ावश गेंद पृथ्वी पर गिरने भी न पाई थी कि मैं ऊपर-ही-ऊपर रोककर कुंज में जा छिपी और ज्योंही इन्होंने आकर मेरे कटि-देश को पकड़ छीनना चाहा त्योंही मैंने भी हाँ-हाँ कर उनके मुक्तादाम पर हाथ डाला, परंतु हे राधे! आपने अपनी कंचुकी के भीतर गेंद चुराकर श्याम को गेंद (तदीय स्थान पर) ढूँढ़ने के स्थान की अच्छी शिक्षा दे रखी है! इसी भ्रम में उन्होंने मेरी कंचुकी पर भी बरबस हाथ डाला है, यद्यपि गेंद ऊपर ही था।