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छंद 198 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(अनुशयाना नायिका-वर्णन)

चढ़ि चारु अटा पैं घटान-बिलोकत, साथ सखीन के गाइ रही।
‘द्विजदेव’ जू औचक डीठि कहूँ, मनमोहन-ऊपर जाइ रही॥
लखि लालन के कर चंप-कली, गहि चंपकली सकुचाइ रही।
धरि और ही की जनु देह घरीक, दरीचिका मैं मुरझाइ रही॥

भावार्थ: कोई सखी रमण गमनानुशयाना की दशा कहती है कि वह अट्टालिका-दुमंजिले कोठे पर चढ़कर सखियों के संग आनंद से घटा देखती हुई गा रही थी। इतने ही में नायक के ऊपर उसकी दृष्टि पड़ी और चंपा की कली को उसके हाथों में देख उसको स्मरण हुआ कि नायक नियत संकेत अर्थात् ‘चंपा वन’ से चिह्न लेकर प्रत्यागत हुआ (लौटा) है तथा मैं न पहुँच सकी। इस कारण ‘चंपाकली’ (एक प्रकार का आभूषण जो वक्षः स्थल पर पहिना जाता है) को पकड़कर, यानी स्वभावतः छाती पर हाथ रखकर क्षणमात्र के लिए दरीचिका में ऐसी निस्सत्त्व सी हो गई कि मानो किसीने उसके शरीर को निचोड़ लिया और अपना शरीर है ही नहीं (यह जानने लगी)। चंपाकली के पकड़ने से यह अभिप्राय है कि हाय! इस आभूषण ने नाम-सादृश्य संबंध रखकर भी मुझे संकतस्थली की सुधि न दिलाई।