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छंद 209 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(सुरतांत-वर्णन)

राति के जागे दोऊ सुख सौं, अनुरागे लहे सबै लोचन-लाहै।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू दोऊ भरे तन, नैन लगालगी-माँह उछाहै॥
होत लटू तब-हीं-तब लाल, जम्हाँन कौं प्यारी जबै-जब चाँहै।
बाँह दै सीस, उँमाह दै नैनन, पाँह दै ओट, पनाह दै नाहै॥

भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी, दूसरी सखी से जम्हाती हुई राधिका (नायिका) की स्वाभाविक छवि का ‘स्वभावोक्ति अलंकार’ से वर्णन करती है कि रजनी के अवसान में दंपती अनुराग से भरे परस्पर एक-दूसरे की शोभा देख नयन सफल कर प्रेम की लगालगी में उत्साह से भर रहे थे। जब-जब प्यारी आलस्य के कारण इस प्रकार की दोनों भुजाओं को सीस के चतुर्दिक मंडलकार कर नेत्रों को उत्साह से भर तकिये के आश्रय पर नायक के सहारे शरीर का भार धर जम्हाई लेती है तब-तब लाल अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र उस शोभा को देख लट्टू (अतिशय आसक्त) हो जाते हैं।