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छंद 211 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(नायिका विरह-दशा-वर्णन)

वा दिन गई ती ब्रज देखन करील-बन झूक मैं परी तौ आइ बंसी के अनासुरी।
ता छिन तैं आली! फिरौं बावरी सी रावरी सौं, ‘द्विजदेव’ नैंकहूँ रुकी न परी साँसरी॥
आज कछु आइ हिय सूरति समानी हुती, रंचक बिहानी रैन धरकत पाँसुरी।
कीजै कहा राम! अब जैऐ केहि ठाम ए री!, फेरि वह बैरिनि बजी री बन बाँसुरी॥

भावार्थ: मैं उस दिन व्रज में करील की कुंज देखने गई थी, वहाँ अकारण ही वंशी के मधुर झोंके में पड़ गई। उसी क्षण से तेरी शपथ मैं विक्षिप्त सी फिर रही हूँ और मेरा उसाँस (वैकल्य जन्य) जरा भी नहीं रुकता। आज कुछ हृदय में स्मरण हुआ था अर्थात् आज तनिक होश आया था, परंतु थोड़ी रात होने पर फिर पसली धड़कने लगी। हे ईश्वर! अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, फिर यह बैरिन बाँसुरी (वंशी) वन में बजी।