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छंद 212 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

कूकि-कूकि कोकिल चलाइ हैं अचूक चोट, पातकी पपीहा ए बिथा के गीत गाइहैं।
‘द्विजदेव’ तैसैंई सरस सुख पाऐं बायु, जम के पठाए छिति-छोर लगि छाइहैं॥
ऊधो! देखि ऊधम इते पर पलासन कौ, बापुरी बियोगिनैं सुकैसैं कल पाइहैं।
ऐसे मधुमास के समागम-समे मैं न जो, प्यारे मधुसूदन हमारे घर आइहैं॥

भावार्थ: हे उद्धवजी! कोकिल-कलाप ‘कुहू’ शब्द बोलकर अव्यर्थ प्रहार (निशाना) करेंगे, योंही ये पापी पपीहे भी ‘पी कहाँ....पी कहाँ?’ कह-कहकर प्रियतम-स्मारक व्यथाकारी गान करेंगे एवं सुपोषित यम के दूत समान समीर भी पृथ्वी के अंत तक पीछा करेंगे, इतने ऊधम पर भी पलासों (किंशुक व मांसाहारी) में जवाल-माल सदृश सुमनों को देख व मांसाहारी निर्दय किंसुक वृक्षों के ऊधम (उपद्रव) को देख बेचारी वियोगिनियों के प्राण कैसे बचेंगे! यदि मधु (चैत्रमास) के समागम समय को जानकर भी प्यारे मधुसूदन (मधु नामक दैत्य के प्राणहारक) हमारे घर न आवेंगे। मधुसूदन नाम या शब्द का प्रयोग कवि ने इसलिए किया है कि कदाचित् ‘मधु’ नामक दैत्य का स्मरण कर तन्नामधारी हरि चैत्रमास के उपद्रव का भी शमन करें।