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छंद 213 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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(नायिका-स्वरूप-वर्णन)

कातिकी के द्यौस कहुँ आइ न्हाइवे कौं वह, गोपिन के संग जऊ नैंसुक लुकी रही।
‘द्विजदेव’ दीह-द्वार ही तैं घाट-बाट लगि, खासी चंद्रिका-सी तऊ फैली बिधु की रही॥
घेरि वार-पार-लौं तमासे-हित ताही समैं, भारी भीर लोगन की ऐसिऐ झुकी रही।
आली, उत आज ‘बृषभाँनुजा’ बिलोकिवे कौं, भाँनु-तनयाऊ घरी द्वैक-लौं लुकी रही॥

भावार्थ: हे सखी! आज कार्तिकीय पूर्णिमा के दिन स्नानार्थ श्रीराधिकाजी चलीं, यद्यपि गोपियों के बीच वे छिपी रहीं या छिपी थीं तथापि उनके मुख की कांति चंद्र ज्योत्स्ना-सी द्वार से घाटपर्यंत प्रकाशमान हो रही थी, इस कारण कौतुकवश स्नान करनेवालों का ठट्ट इस पार से उस पार तक ऐसा लगा रहा कि मानो सेतु सा बँध गया और इसी से स्वभावतः जल का प्रवाह रुका सा जान पड़ता था जिसपर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि यमुनाजी श्रीराधिकाजी की उस छटा से विमोहित हो उसे देखने को कुछ काल तक स्तंभित हो रहीं अर्थात् जब ‘नदी’ सदृश जड़ वस्तु की यह गति हो गई तो चेतन की कौन कथा है।