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छंद 221 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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   मनहरन घनाक्षरी
(विरह-निवेदन-वर्णन)

स्वेद कढ़ि आयौ, बढ़ि आयौ कछु कंप, मुखहू तैं अति आखर कढ़त अरसै लगे।
‘द्विजदेव’ तैसैं तन तपत तँदूरन तैं, तपत तँदूर से सरीर झरसै लगे॥
एते पैं तिहारी सौं तिहारे बिन स्याम! बाम-नैननि तैं आँसू हू सरस बरसै लगे।
एक ऋतुराज काल्हि आयौ ब्रज माँहिँ आज, पाँचौ ऋतु प्यारी के सरीर दरसै लगे॥

भावार्थ: कोई सखी नायक से विरह-निवेदन करती है कि कल व्रज में एक ऋतुराज के आते ही (आज) प्यारी के शरीर में अवशिष्ट पाँचों ऋतु दिखाई देने लगी, क्योंकि देखो प्रस्वेद देख पड़ते हैं और कुछ कंप भी होने लगा है, मुखारविंद से आलस्ययुक्त वचन भी निकलने लगे। कवि कहता है कि शरीर भी तप्त तंदूर की नाईं हो आया अर्थात् शरीर को तप्त तंदूर की तरह संतप्त किए देता है। इतने पर भी हे श्याम! आपकी शपथ है कि बिना आपके नायिका के नेत्रों से अश्रुपात होने लगा है, अतः कल व्रज में एक ऋतुराज के आते ही आज प्यारी के शरीर में अवशिष्ट पाँचों ऋतुओं का अनुभव होने लगा है।