छंद 230 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(पूर्वानुराग-वर्णन)
मानैं काँनि काहू की न आँनत कछूक डर, लाज-काज-मानहुँ रसातल-तले गए।
हारी हौं सिखाइ तऊ ठाँनत न क्यौं हूँ तोष, ऐसैं ही कछूक छल-छंदन छले गए॥
‘द्विजदेव’ जा दिन तें दरस दिखाइ कहूँ, अति ही निकट मनमोहन चले गए।
होते जो हमारे तौ हमारी कही मानते री! बीसबिसैं आली! मेरे नैन बदले गए॥
भावार्थ: हे सखी! जब से मनमोहन ने अपने रूप-लावण्य को दिखा फिर दर्शन न दिया तब से मेरे नेत्र किसीका भय नहीं करते और न लाज से उनसे कुछ प्रयोजन रहा। वह लाज तो मानो रसातल को चली गई। मैं शिक्षा देकर थक गई पर उनको संतोष नहीं होता। जिससे ज्ञात होता है कि वे छलिया मनमोहन के छù से ठगे गए हैं, क्योंकि यदि ऐसा न हाता तो मेरे नेत्र अधीन होते और मेरे कथन को मानते। निदान यही निश्चित होता है कि मेरे नयन बदल गए अर्थात् जोपूर्व में लज्जादिक गुणों से युक्त थे, वैसे अब न रहे, यह बोलचाल है कि ‘आज उनकी आँखें बदल गईं’।