छंद 243 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
रूप घनाक्षरी
(पुनः वसंत-वर्णन)
फेरि वैसैं बेलीं मंद डोलन चहूँघाँ लगीं, फेरि वैसैं फूलन मरंद-झरि लागी हौंन।
फेरि वैसैं भूमि भई बासित सुबासन सौं, फेरि वैसैं पूरित परागन भए हैं पौंन॥
‘द्विजदेव’ फेरि वैसैं सोहे तरु-पुंज-कुंज-कुंजन मैं फेरि वैसैं मोर ह्वै गए हैं मौंन।
फेरि वैसी पलटि गई हैं गृह-बापिकाऊ, फेरि वैसैं पलटि गए हैं चारौं ओर भौंन॥
भावार्थ: उसी प्रकार लता समूह फिर उन्मत्त हो डोलने (हिलने) लगा और फिर (उनके) पुष्पों से रस की वर्षा होने लगी, भूमि पुनः सुगंधित पुष्पों से सुवासित हो गई तथा वायु पुनः पराग-पुष्प-रज व धूलि से परिपूरित हो गए, फिर कुंजों में वृक्ष सुशोभित हुए और मयूरगण ने मौनावलंबन किया। गृह, बाग, तड़ागादिक की शोभा फिर पलट गई अर्थात् नवीन हो गई। इस कवित्त में भी कवि ने परम सावधानी से बुद्धि-विपर्यय का कारण पूर्व कवित्त के अनुसार ही दिखलाया है और अपने को मयूर का अनुकरण कर मौन होना बतलाया है।