Last modified on 3 जुलाई 2017, at 16:09

छंद 245 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:09, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मनहरन घनाक्षरी

वैसैं हीं बिदेस के जबैया रहे गौंन-तजि, मौंन-तजि वैसैं मंजु-कोकिल-कलाप भौ।
‘द्विजदेव’ वैसैं हीं मलिंदन कौं मोद-कर, मल्लिका, मरूअ, माधवीन सौं मिलाप भौ॥
वैसैं हीं सँजोगी जुरि जोवन लगे हैं कुंज, वैसैं हीं बियोगिनि के बृंद कौ बिलाप भौ।
वैसैं हीं बहुरि मोह-बान बरसन लागे, वैसैं हीं सगुन फेरि मनसिज-चाप भौ॥

भावार्थ: पूर्ववत् विदेश यात्रा करनेवालों ने उद्दीपन के कारण यात्रा न कर विराम लिया, कोकिल समूह भी मौनव्रत छोड़ पहले की भाँति कलरव कर चले अर्थात् अज्ञान हो मौनव्रत का खंडन किया, भ्रमर कुल को मोदकारी माधवी, मरुआ, मल्लिकादिक पुष्पों का सम्मिलन हुआ, उसी भाँति संयोग की इच्छा करनेवाले लोग वनकुंज की ओर दृष्टिपात कर वन-विहार की इच्छा करने लगे और इसी तरह वियोगी जन व्याकुल हो विलाप करने लगे और पुनः कामदेव ने मोहनास्त्र का प्रयोग किया अर्थात् अरविंद कलिका की गाँसी को बाण में संयोजित कर उसके संधान करने को फिर अपने ‘पुष्पधन्वा’ पर भ्रमरावली का रोदा चढ़ाया, यानी सब चराचर की बुद्धि कें विपर्यय हुआ है। ‘पंच बाण’ यथा-

”अरविन्दमशोकंज चूतंच नवमल्लिका।
नीलोत्पलंच पंचैते पंच बाणस्य शायकाः।
सम्मोहनोन्मादनौं च शोषणस्तापनस्तथा।
स्तम्भनश्चेति कामस्य पंच बाणाः प्रकीर्तिताः॥“