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छंद 258 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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(अधर-लाली-वर्णन)

तन स्वास लगाइ सुबास तरंग, रचैं नित पानन की पतियाँ।
‘द्विजदेव’ जू जे वे सदाँई भरैं, अनुरागन कौं पति की छतियाँ॥
जिन आछे अनूपम-ओठन ह्वै, बहु-भाँतिन कीन्हौं करैं गतियाँ।
किन राग-मई बिरचैं तिनकौं, अनुराग-मई तिय की बतियाँ॥

भावार्थ: भगवती पुनः कहती हैं कि जिस मुख की वायु के लगने से हरे-हरे पानों की पत्ती सुवासित और लाल रंगवाली हो जाती है और जिस मुख से निकली हुई बातें पति (कृष्णचंद्र) के हृदय को अनुरागमयी करती हैं तथा जो उपमानरहित ओंठों से संचार करती हैं तो वे उनको क्यों न रागमयी कर दें, राधाजी के अधर की लालिमा का कारण जो ऊपर वर्णन किया (है), कोई (उसका) उपमान नहीं ला सकते। इससे यह लक्षित हुआ कि ‘अधर’ की समता किसी वस्तु से हो ही नहीं सकती।