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छंद 259 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(कपोल और ओष्ठ-वर्णन)

दीपति-पुंज-भरे तन सौं, छन-जौन्ह कहौ उपमा किमि पैहै।
त्यौं बिबि-गोल-कपोल लखैं, किन आरसीहूँ कहँ आरस ऐहै॥
राग-भरे उन ओठन के ढिँग, बेसरि-संग जो पैं समुहै है।
चातुर हौ तौ कहौ ‘द्विजदेव’ चुनी की सु कौंन दसा तब ह्वै है॥

भावार्थ: सरस्वती कवि से भाषण करती है कि श्रीराधाजी के प्रभा-समूह संयुक्त अंग की छन-जौन्ह (विद्युल्लता) से उपमा कैसे हो सकती है? क्योंकि उसका नाम ही क्षणप्रभा अर्थात् किंचित् काल के लिए प्रकाशित होनेवाली है। वैसे ही युगल ‘कपोल’ की उपमा (एक तरह की अँगूठी, जिसमंे गोल दर्पण लगा रहता है और जिसमें स्त्रियाँ अपने शृंगार सुधारने के लिए मुँह देखा करती हैं तथा यह आभूषण सौभाग्यवती के सिवा दूसरी स्त्री नहीं पहनती) से नहीं हो सकती, क्योंकि ‘आरसी’ का शब्दार्थ आलस्ययुक्त है। अतः सदा विकसित कपोलों के देखने से उसमें झाँईं आ जाएगी अर्थात् वह लज्जित होगी। जब किसीका प्रतिबिंब किसी आईने में पड़ता है तो उसका धर्म ही यह है कि प्रतिबिंब स्वयं ग्रहण कर अपनी चमक-दमक को नहीं दिखलाता। इसी प्रकार लाली भरे ओंठों की समता चुन्नी अर्थात् पù मणि यानी ‘लालड़ी’ (री) कदापि नहीं कर सकती। यह माना कि बेसरि (नासाभूषण) के संग से यद्यपि वह उसके सन्निकट प्राप्त हो जाए, क्योंकि ऐसा कहा है कि संगति का दोष अवश्य लगता है तो बेसरि का संग अर्थात् बे-मर्यादावाले का संग करने से चुन्नी भी धृष्टतावश अपने रंग के अभिमान में चाहे वहाँ तक पहुँचे, किंतु हे द्विजदेव! तुम तो स्वयं चतुर हो, विचारो कि उसकी क्या गति होगी? अर्थात् उसका वर्ण फीका पड़ जाएगा। (इस सवैया में बेसरि, आरसी, छन-जौन्ह, इन तीनों शब्दों में अभिधामूलक व्यंग्य है।)