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छंद 273 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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सोरठा
(ग्रंथ समाप्त-वर्णन)
सनमुख गिरा-निहारि, सीख-असीख समेत लहि।
कछु नहिँ सकत उचारि, पुलकित तन, गदगद बयन॥
भावार्थ: तिस पीछे भगवती शारदा को सम्मुख खड़ी और अशीसते देख मैं (कवि) कुछ न कह सका, क्योंकि गला भर आया और शरीर में रोमांच होने लगा।