Last modified on 4 जुलाई 2017, at 16:11

क्या अब भी / रंजना जायसवाल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 4 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दिन प्रति दिन
व्यतीत होता जाता है जीवन
 नहीं बीत रहा तो मन
नहीं रीत रही तो देह
देह में दौड़ती है वही आवेगमयी नदी
लेते ही तुम्हारा नाम
आँखें देखती हैं
उगते सूरज में तुम्हारा चेहरा
पंखुरियों में तुम्हारे होंठ
पहले की तरह
कैसे हो तुम
सुना है दिखने लगे हो थोड़े बूढ़े
बालों में आ गयी है कुछ सफ़ेदी
 कैसे मान लूँ
नहीं बची होगी आग
कि उपले सी सुलग उठे देह
चूक गयी होगी बाँहों की मजबूती
बची तो होगी जरूर प्यास
बूंद-स्वाती –सीप की
हार गए होगे उम्र से
प्रेम ने बचा रखा होगा तुम्हें
 वैसे का वैसा ही
जैसे छूटते समय