भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इच्छा / डॉ. देशभक्त

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:44, 14 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवनदेव ठाकुर 'देशभक्त' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाबू जी!
तों जे पौध केॅ
लगैने छेलौ अपनॅ आंगन में
डालने छेल्हौ खाद
अपनॅ पेट काटी केॅ
आरो सिंचने छेल्हौ जेकरा
अपनॅ लहू-पसीना सें
आबेॅ ऊ पौधा
पौधा न´
पेड़ होय गेलॅ छै
ओकर कमजोर डाल
आबेॅ फौलादॅ सें टकराबै के
काबिल होय गेल छै
ऊॅ छोटॅ पौधा
जेकर ऊँचाई बहुत कम छेलै
आबेॅ
आसमान केॅ छूवै के लायक होय गेलॅ छै
तखनी तेॅ
ऊ ठूंठ छेलै
आबेॅ
घना बादल जकाँ होय गेलॅ छै
बहुत फूल लगलॅ छै ओकरा में
आबेॅ कुछ दिन सें
मीट्ठॅ फलो लागेॅ लागले
मतुर
पछताबै छै ऊ बृक्ष
रोवै छै याद करि केॅ तोरॅ
कोसै अपन भाग केॅ
कहिंने कि
देॅ न´् सकलकै कुछ तोरा
काश! अखनी तक तों जीवित रहतियॅ
अखनी अपनॅ लगैलॅ पौधा केॅ
फूलते फलते देखेॅ सकतिहॅ