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शबाना / जावेद अख़्तर

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ये आए दिन के हंगामे
ये जब देखो सफ़र करना
यहाँ जाना वहाँ जाना
इसे मिलना उसे मिलना
हमारे सारे लम्हे
ऐसे लगते हैं
कि जैसे ट्रेन के चलने से पहले
रेलवे-स्टेशन पर
जल्दी जल्दी अपने डब्बे ढूँडते
कोई मुसाफ़िर हों
जिन्हें कब साँस भी लेने की मोहलत है
कभी लगता है
तुम को मुझ से मुझ को तुम से मिलने का
ख़याल आए
कहाँ इतनी भी फ़ुर्सत है
मगर जब संग-दिल दुनिया मेरा दिल तोड़ती है तो
कोई उम्मीद चलते चलते
जब मुँह मोड़ती है तो
कभी कोई ख़ुशी का फूल
जब इस दिल में खिलता है
कभी जब मुझ को अपने ज़ेहन से
कोई ख़याल इनआम मिलता है
कभी जब इक तमन्ना पूरी होने से
ये दिल ख़ाली सा होता है
कभी जब दर्द आ के पलकों पे मोती पिरोता है
तो ये एहसास होता है
ख़ुशी हो ग़म हो हैरत हो
कोई जज़्बा हो
इस में जब कहीं इक मोड़ आए तो
वहाँ पल भर को
सारी दुनिया पीछे छूट जाती है
वहाँ पल भर को
इस कठ-पुतली जैसी ज़िंदगी की
डोरी टूट जाती है
मुझे उस मोड़ पर
बस इक तुम्हारी ही ज़रूरत है
मगर ये ज़िंदगी की ख़ूबसूरत इक हक़ीक़त है
कि मेरी राह में जब ऐसा कोई मोड़ आया है
तो हर उस मोड़ पर मैं ने
तुम्हें हम-राह पाया है