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पत्नी, बहन और माँ / गौरव पाण्डेय

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कभी-कभी
पत्नी को देखता हूँ
जैसे देखता हूँ बहन को
चाहता हूँ लगा दूँ एक आलपिन
फिसलते दुपट्टे पर
कालेज-बैग तैयार कर छोड़ आऊँ चौराहे से पार...

कभी-कभी
उससे लिपटते हुये
भर जाता हूँ एहसास तक
और उसके सीने में दुबके हुये
याद आ जाती है माँ...

कभी-कभी
वह बेतहाशा चूमती है फेरती है हाथ
जैसे में अभी-अभी किसी
हादसे से बचकर आया होऊँ...

कभी-कभी
जब वह सो रही होती है मेरे बगल में
तब निहारता हूँ उसके चेहरे को
निहारता हूँ जैसे माँ को या
सोयी हो जैसे छोटी बहन...