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पर वह बुत तुम्हारा नहीं होता / स्वाति मेलकानी
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तुम लिखते हो कविता
हर पत्थर पर
जो दबा हुआ है
नींव में गहरा
मिट्टी की कई परतों के नीचे।
जो चुना गया है दीवारों में
बिखर गया है सड़कों पर
या खड़ा है सड़क किनारे,
रास्ता बताता
हादसों से बचाता।
जो फेंका गया है
शिकार की तलाश में घूमते कुत्तों
और शहर में घुस आये
भेड़ियों पर।
जो हर रोज बुत बनकर खड़ा रहता है
चौराहों पर
मंदिरों में
जिस पर चढ़ती हैं मालाएँ
निर्धारित अवसरों पर
विशेष कारणों से।
कर्मकांडों की धूप-बत्ती में
पूजी जाती हैं तुम्हारी कविताएँ
पर वह बुत तुम्हारा नहीं होता।