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कहानी / स्मिता सिन्हा

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इस कहानी में अक्सर
मैं होती हूँ
तुम होते हो
और होते हैं
उलझते ख़त्म होते से संवाद!

इस कहानी में
अक्सर ही रह जाते हैं
असंख्य असहज से शब्द
कुलबुलाते बुदबुदाते
तिलिस्म के अंधेरे में
शब्दों से टकराते शब्द
और पीछे छूटता
एक अनकहा सा सन्नाटा
उस अनकहे में भी
जाने कितना कुछ
कह जाते हैं हम
एक दूसरे से
पर कभी समझना नहीं चाहते
उस कहे को!

इस कहानी में
अक्सर ही मैं सजाती हूँ
वह एक खुद का कोना
और रख आती हूं वहाँ
अपना मन बड़े सलीके से
कि कभी तुम आओ तो
साझा करूं उस मन को
तुम्हारे साथ!

यूँ देखा जाये तो
और क्या चाहिये हमें
इस एक कहानी में
बस यही न कि
हो एक टूकड़ा आसमां
और छोटी
बेहद छोटी सी उड़ान
ताकि लौट सकें वापस
एक दूसरे के पास
वक़्त के रहते
चुटकी भर पीली चटकीली धूप
और ओस की बूँदों में नहाई
हरी कोमल पत्तियाँ
हमारे नाजुक सपनों की तरह
मुठ्ठी भर छलकती हंसी
और ढेर सारी तसल्ली व दिलासा
कि होगी बेहतर
और बेहतर ज़िंदगी!

वैसे इस कहानी में
अगर कभी पुछ पाऊँ
तो इतना ज़रूर पूछना चाहूंगी तुमसे
कि कहीं ज़िंदगी जीने की कोशिश में
हम हर दिन,हर एक दिन
खुद को,एक दूसरे को
खोते तो नहीं जा रहे हैं...