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नीरजा / स्मिता सिन्हा

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मैं अब भी चिहुंक उठती हूँ
बारिश की बूँदों की मद्धम आवाज़ पर
छिटकना चाहती हूँ यादों की परछाईं
तुम फ़िर भी शेष रह जाते हो मुझमें कहीं
उस दिन भींगते आकाश से
जो एक अकेली बूँद गिरी थी
मेरी पलकों पर
मैंने उसे तुम्हारा प्रेम समझा
गाढ़े चुम्बन में लिपटा
तुम्हारा बहुप्रतीक्षित प्रेम...

पर ऐसा हो नहीं सकता
कि तुम्हारे आस पास
हर वक़्त नमी रहे
बरसती रहें बूँदे
और अंतस तक फूटती रहें नदियाँ
मैंने देखा
चटख अंगारों पर टपकती बूँदों को
और धुआँते आसमान को भी
मैंने देखा
उन सभी स्पंदित भावनाओं को
कांपते,थरथराते,बहते
निर्वाध वेग से
उन बारिश की बूँदों के साथ...

देखो बहने और बहाने के बीच
एक युग सा फासला होता है
पर डूबना एक सा ही है
हाँ प्रेम फ़िर भी अविचल रहता है
सभी अमानुषी पहाड़ों के विरुद्ध
अब फ़िर जिस दिन
बूँदे बरसेंगी बेतहाशा
तुम नज़र रखना उस क्षितिज पर
देखना दूर कहीं
किसी अंजुरी की कोर से
छूटती बूँदों में
धीरे धीरे छूटती जाऊँगी मैं भी
और अंततः तुम मुक्त होते जाओगे
अपने प्रारब्ध से...