एक घर का मकान होना / स्मिता सिन्हा
यह ठीक बसंत के बाद का मौसम है
और सपने पतझड़ हुए जाते हैं
अभी जबकि आँखें व्यस्त हैं
नये सपने उगाने में
पलकों पर पिछली बारिश की नमी बाकी है
बाकी है घर की दीवारों पर
नन्हें हाथों से बनी आड़ी तिरछी रेखाएँ
मेहमां परिंदों की पहली उड़ान भी बाकी है
तुलसी में मंजर का आना भी है बाकी
और हाँ सभी ज़रुरी कागजातों पर
घर का पता बदलना भी तो बाकी है
इन दिनों
जितना खाली हो रही हूँ मैं
उतना ही भर भर आ रहा है
यह घर मुझमें
इन दिनों
जहाँ जहाँ पिघल रहा है मन
वहीं वहीं छूटती जा रही हूँ
कतरा कतरा हँसी में मैं
वैसे अच्छे और बहुत अच्छे के बीच
कहाँ कुछ इतना आसान रह पाता है
आज मेरी ज़िंदगी में अपनी शिरकत को
वह बेहिचक स्वीकारता है
आज मेरा घर फ़िर से
एक मकान हुआ जाता है...