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उस गुलाब के पत्तों पर / स्वाति मेलकानी

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तुम अमूल्य हो
और मैं असंभव।
मोल लगाए़ँ कैसे उसका
जो है बीच तुम्हारे मेरे।
ये बातें जो खो जाती हैं
पर सीधी अनंत में जाकर
पल वे सारे शून्य
समय के पैमाने पर।
दृष्टि अमिट रह गई
मिली जो अनजाने में
दृश्य कहीं छिप गये
सूर्य के आलोकों में।
दिन प्रचण्ड था
किन्तु ओस की
बूँदें अब तक जमी हुई हैं
उस गुलाब के पत्तों पर
जो मुझे दिया था तुमने छू कर।