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इज़्ज़तपुरम्-1 / डी. एम. मिश्र

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ठंडा हो चूल्हा
अनुपस्थित हो / धुआँ
खामोश हो / बरतन
और भड़की हो
भूखी आग
तो दाँत
अपनी जड़ों की
गीली मिट्टी / और
कच्ची हरियालियों को
चबाने / और
उजाड़ने पर
उतर आयें

जब / शुष्क आँतों की
मरोड़ पर
खोखले आदर्शों का
बोझ / और भी
गरू पड़े

क्योंकि / ज्यादा देर
सुस्ताना / और
खाली रहना
नहीं जानता
पेट / जीवन की
यात्रा में

नन्हीं तृषा
बीहड़ों में
भटके
उन्मुक्त रास्ते
अज्ञात में
खुलें