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कालक फेरामे / अविरल-अविराम / नारायण झा

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अपना-अपनी मे सभ रमल छै
स्वार्थे स' सङगोर अटल छै
उचित-विहित की लोक-कुलोक
केयो माथ केयो पएर दबल छै।

पटु रहितो माछी भिनकल छै
अकान गला घंटी लटकल छै
ज्ञानी-अज्ञानी की जेहने तेहने
हबे-पानि एखन बहसल छै।

केहनो कुलीन तदपि मंहकल छै
कुलटा माथा यश गौंछल छै
पात्र-कुपात्र की छल-प्रपंची
विचारे पोरे-पोर चहकल छै।

जैह छै सबला सैह रकटल छै
जकरा कहू अबला बैह भरल छै
दीन-धनी की खगल - भरल
नप्पे युगक सहस्रो चनकल छै।

जैह दोषी, सैह माथ चढ़ल छै
मुँहदुबरा हिस दोष भेटल छै
दोष- निर्दोष की नींक -बेजाय
न्याय जखन निसभेड़ सुतल छै।

सद्चरित सभदिन ओझल छै
जगला मनुजक जीत लिखल छै
सत सत्ते, उचित उचिते
कालक फेरा मे सभ पड़ल छै।