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इश्क़ इबादत - 2 / भवेश दिलशाद

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चलो, रुख़सत करो जाऊँ अभी कुछ रात बाकी है

सुबह हो जाएगी तो लोग फिर बातें करेंगे कुछ
कमीने हैं लिहाज़ो-शर्म-अदब भी क्यूँ रखेंगे कुछ
तुम्हें बदनाम कर देंगे मुझे ताने भी देंगे कुछ
चलो, रुख़सत करो जाऊँ अभी कुछ रात बाकी है

मगर फिर सोचता हूँ इश्क़ कब बदनाम होता है
इसी जज़्बे में तो रोशन ख़ुदाया राम होता है
तो फिर ये ख़ौफ़ क्या है फ़िक्ऱ क्यूँ है उलझनें क्यूँ हैं
अभी कुछ रात बाकी है तो फिर ये अड़चनें क्यूँ हैं

तमन्ना पूछती है ये तुम्हारा हाथ क्यूँ छोडूँ
संवारूं क्या अभी से लट हर इक चूड़ी न क्यूँ तोडूँ
अभी कुछ रात बाकी है लिपटकर तुमसे लेटूं मैं
अभी कुछ और लमहों और वक़्फ़ों को समेटूं मैं

मगर दुनिया ये कहती है गलत इस पाक़ रिश्ते को
गज़ब के नाम देती है इस इक मासूम जज़्बे को
कई आलिम किताबें मज़हबों की खोल देते हैं
ज़रा से सच से अक्सर झूठ कितना तोल देते हैं

यहाँ फिर चंद दानिशमंद भी हैं फ़ल्सफ़ों वाले
नज़र में जिनकी ये रिश्ते हैं रूहों पर पड़े जाले
किसी ने जोश कह डाला तो कोई मोह कहता है
जुनूं कैसा ये जाने सबके सर पर हावी रहता है

ख़ुदाओं की पनाहों और भगवानों की शरणों में
सब अपना सर झुका देते हैं अनदेखे से चरणों में
मगर मैं मानता हूँ ये मुहब्बत कर रहा हूँ मैं
यही महसूस होता है इबादत कर रहा हूँ मैं

मुझे इन फ़ल्सफ़ों से क्या मैं इतना जान पाता हूँ
तुम्हारे साथ होता हूँ तो ख़ुद से जुड़ सा जाता हूँ
थकानें मेरी लेकर मुझको सीने से लगाती हो
सुक़ूं की नींद आती है तुम ऐसे जब सुलाती हो

तुम्हें तस्क़ीन मिलती है लिपटकर मुझसे रोने में
बड़ा महफ़ूज़ पाती हो मेरी बांहों में होने में
हर इक दौलत हर इक शय जो तुम्हें लगती है बेमानी
मुझे देखे बिना बेचैन रहती है ये पेशानी

कई सदियां हुईं रोज़ाना सुब्हें होती हैं, अफ़सोस
अभी तक रात बाकी है ज़माने भर के ज़हनों में
ज़हीनों ने जो कुछ बोला था बेफ़िक्ऱी में गफ़लत में
वही हर बात बाकी है ज़माने भर के ज़हनों में

अभी कुछ रात बाकी है अभी हम सुब्ह देखेंगे
मुझे रुख़सत नहीं करना कि जब तक उम्र बाकी है