भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इश्क़ इबादत - 5 / भवेश दिलशाद

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:38, 2 सितम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भवेश दिलशाद |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलते हुए बंदों से दो बातें करें दिल की
चलने से ही मतलब है धुन राह न मंज़िल की
आँखों में बहुत धूपें तलवों पे फफोले हैं
हम लोग भी भोले हैं चलने में ही माहिर हैं
हम ऐसे मुसाफ़िर हैं, हम ऐसे मुसाफ़िर हैं

मिट्टी से जुड़े हैं हम मिट्टी की इनायत है
मिट्टी से बने हैं सब सो सबसे मुहब्बत है
मिट्टी ने हमारे नाम लिक्खा भी यही ख़त है-
‘किस रंग की मिट्टी से रिश्ता है कहाँ जुड़ता
कुछ फ़र्क नहीं पड़ता हम मिट्टी ही आख़िर हैं’
हम मिट्टी ही आख़िर हैं, हम मिट्टी ही आख़िर हैं

पानी की कई क़िस्में हर क़िस्म कहानी दे
जो शर्म का पानी है इज़्ज़त का वो पानी दे
पानी जो पसीना है ख़ुशियों की निशानी दे
पानी जो लहू बनकर बहता है अगर हरसू
बहते हैं बहुत आँसू हम पानी बज़ाहिर हैं
हम पानी बज़ाहिर हैं, हम पानी बज़ाहिर हैं

मिट्टी भी फले-फूले पानी भी लबालब हो
हम बीज अभी बोएं होएगी फसल जब हो
कुछ बीज भलाई के कुछ बीज मुहब्बत के
रिश्तों की हरारत के कुछ सच्ची इबादत के
चलते हुए बंदों से हम बात करें इतनी
वो दान करे उतना जिसकी है दुआ जितनी
चलते हुए बंदों से हम बात करें इतनी
हम लोग शुरू से हैं हम भस्म नहीं होंगे
हम खत्म नहीं होंगे हम लोग तो फिर-फिर हैं
हम ऐसे मुसाफ़िर हैं, हम ऐसे मुसाफ़िर हैं