Last modified on 4 सितम्बर 2017, at 14:04

मेरी कल्पना में तुम / लवली गोस्वामी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 4 सितम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लवली गोस्वामी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

थकान की पृथ्वी का बोझ पलकों पर उठाए
पुतलियाँ अतल अंधकार में डूब जाना चाहती हैं
पर देह एक अंतहीन सुगबुगाहट के साथ जागना चाहती है

बारिश के बाद हरियाती पीली फूस जैसे सर उठाकर
दरदरी मिट्टी के कण स्नेह से झटक देती है
ठीक वैसे ही रोम-रोम कौतुक से ऊँचककर तुम्हें देखता है
आत्मा की आँखें त्वचा पर दस्तक देती हैं
शताक्षी की देह में उगी पलकों की तरह
प्रत्येक रोमकूप में आँखे उगी हैं

अवश देह रोओं की लहलहाती फसल बीच
तुम्हारी उपस्थिति बो रही है
स्मृतियों के तमाम हरकारे कानों में धीरे से फुसफुसाते हैं
तुम देह का कोलाहल नहीं हो, कलरव हो
तुम मन की प्रतीक्षा नहीं हो, सम्भव हो

अवसाद के नर्क के सातवें तले में
तुम्हारे मन के प्रवेश- कपाट खुलते हैं
देहरी से आते धर्मग्रंथों के उजाले के विरुद्ध सर झुकाये तुम
देवदूत गैब्रियल की शक्ल लिए दिखाई देते हो

कुँवारी मैरी तक ईश्वर का सन्देश पहुँचाने के एवज में तुम पर
धर्मधिकारियों द्वारा पवित्रता नाशने का अभियोग लगाया गया है
बतौर सजा तुम्हारे पंख नुचवा लिए गए हैं

पँखों की लहूलुहान कतरने लेकर तुम
सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में वहाँ चढ़ जाते हो
जहाँ से निर्बल असहाय पक्षी आत्महत्या करते हैं

दुखी मन से शेष बचे सफ़ेद पंख नोचकर
तुम उन्हें पहाड़ से नीचे उछाल देते हो
वे पंख नभ की आँखों से झरने वाले पानी के बादल बन जाते हैं
हर वर्षा ऋतु सृष्टि तुम्हारी पीड़ा का शोक मनाती है

अंधकार अब घटित हो रहा है
पलकें अब स्वप्नों का दृश्य-पटल है
मेरी कल्पना में तुम पद्मासन लगाये सिद्धार्थ में तब्दील गए हो
इस दृश्य में तुम बोध प्राप्ति के ठीक पहले के बुद्ध हो
मैं तुम्हारी गोद में पड़ी अर्धविकसित अंडे में बदल गई हूँ

तुम्हारी देह की ऊष्मा से पोषण पाकर
अपने प्रसव की आश्वस्ति में नरमी से मुस्कुराती मैं
अपनी कोशिकाओं को निर्मित होता देखती हूँ
उठकर जाने की बाध्यता से डरकर तुम
मेरे सकुशल जन्म तक बोध-प्राप्ति की अवधि बढ़ाते जाते हो

मैं मुलमुलाती अधखुली पलकों से देखती हूँ
तुम सफ़ेद रौशनी की तरह दिखते हो
अर्धविकसित धुंधले मन से सोचती हूँ
तुम दुःख के कई प्रतीकों में ढल जाते हो

मैं देखती हूँ हर प्रतीक्षा दरअसल एक अभ्यास है
अभिसार की प्रतीक्षा प्रेम का अभ्यास है
प्रसव की प्रतीक्षा मातृत्व का अभ्यास है
बुद्धत्व की प्रतीक्षा मोहबद्धता का अभ्यास है।