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सच / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता

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तू मेरा सच तो है,
यक़ीन नहीं।
कितने मासूम अँधेरों में तलाशा था तुझे
कितने संगीन उजालों में तुझे पाया है।
कितना चाहा था कोई रिश्ता निभाऊँ तुझसे
और जाना कि तेरा अक़्स भी पराया है
स्याह रातों के कमज़ोर, तल्ख़ लम्हों में
बारहा तेरी याद आई है।
ये तेरे होंठ, तेरी ज़ल्फ़ें, ये तेरी बाँहें
ये तू नहीं, तेरी परछाईं है।
कभी ख़्वाबों में, तसव्वुर में कभी
कितना चाहा है, चलूँ हाथ थामकर तेरा
उफ़ुक़ के पार, कहीं दूर, बहुत दूर कहीं
नींद से जाग गया हूँ और ये पाया है,
मेरे पाँवों तले ज़मीन नहीं।
तू मेरा सच तो है,
यक़ीन नहीं।