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लफ़्ज़ / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता

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तेरी जु़ल्फ़ों के पेचो-ख़म में जो उलझकर खो गए थे
तेरी आँखों की नर्म झीलों में डूब मदहोश हो गए थे,
तेरे लबों पर मचल-मचलकर ख़ामोशियों में सो गए थे
तेरे बदन की महकती ख़ुशबू ने उनको आज़ाद कर दिया है,
जो लफ़्ज़ तुझ को छू के आए हैं, मेरे हैं
चलो इन्हें नज़्म में पिरो दें, फिर सजाएँ
खिज़ाँ की ख़ामोश वादियों को फिर बसाएँ
दिल के वीराने में सोयी यादों को फिर जगाएँ
तेरे ग़म को फिर भुलाएँ,
तेरे ख़्वाबों को चुराएँ।