Last modified on 10 अक्टूबर 2017, at 10:32

उन्माद / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:32, 10 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |अनुवादक= |संग्रह=तुम्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब किसी ख़ामोशी में, लहू जैसे ठहर सा जाता है,
शहर, ख़ुद पर यक़ीन करने का
भरम कर लेता है।
आदमी, सिमट जाते हैं,
इतिहास के पन्नों में।
औरतें, तपी धूप में,
अपने होने का
सपना देखती रहती हैं।
मैं बैठा, सोचता रहता हूँ
अनगिनत बातें,
चलती रहती है दुनिया, अपने
नपे-तुले रास्तांे पर।
पंचांग पड़े रहते हैं, बेकार
मेज़ पर
अपने पन्ने पलटते हैं।
बरसात में
धूप-घड़ी
गिनती है पल-छिन
बेमतलब।
और समय सिमटता रहता है,
स्मृति की दर्दभरी
सतहों में।