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अर्ज़—ओ—समाँ में / साग़र पालमपुरी
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अर्ज़—ओ—समाँ में बर्क़—सा लहरा गया हूँ मैं
हर सिम्त एक नूर—सा फैला गया हूँ मैं
दुनिया को क्या ख़बर है कि क्या पा गया हूँ मैं
सिदक़—ओ—वफ़ा की राह में काम आ गया हूँ मैं
फागुन की सुबह—सा कभी मैं झिलमिला गया
सावन की शाम— सा कभी धुँधला गया हूँ मैं
आईना—ए—ज़मीर पे जब भी नज़र पड़ी
अपना ही अक़्स देख के शरमा गया हूँ मैं
गुमनामियों का मेरी ठिकाना नहीं कोई
अपने ही घर में अजनबी कहला गया हूँ मैं
अपना पता मिले तो कहीं साँस ले सकूँ
हंगामा—ए—वजूद से तंग आ गया हूँ मैं
‘साग़र’! हिसार—ए—ज़ात से छूटा तो यूँ लगा
इक उम्र— क़ैद काट के घर आ गया हूँ मैं