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कोई दामन कोई शाना होता / सुभाष पाठक 'ज़िया'
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कोई दामन कोई शाना होता
मेरे अश्कों का ठिकाना होता
तुम नहीं कोई नहीं है जैसे
तुम अगर होते ज़माना होता
लज़्ज़त ए इश्क़ न जाती दिल से
काश वो छुपना छुपाना होता
क़त्ल हो जाता क़सम से हँसकर
मैं अगर तेरा निशाना होता
ख़ार चुभते न अगर हाथों में
क़ीमत ए गुल को न जाना होता
इक ज़रा तेरी हँसी भर देती
ज़ख़्म कितना भी पुराना होता
होती पुरलुत्फ़ मुलाक़ात 'ज़िया'
उसके लब पे जो बहाना होता