इस अंतस्थ में कितना कोलाहल है
कितना कुछ भर रखा है अंदर में हमनें
सुनो बुद्ध, विवेक के व्यतिकरण के लिए आये थे इसी सलिल तट
वृक्ष के नीचे यहीं झरी थी ज्ञान की ऊंझा
आओ इस तट पर सम हो लेते है
आओ अपने "मैं " से "हम" हो लेते है !
इस अंतस्थ में कितना कोलाहल है
कितना कुछ भर रखा है अंदर में हमनें
सुनो बुद्ध, विवेक के व्यतिकरण के लिए आये थे इसी सलिल तट
वृक्ष के नीचे यहीं झरी थी ज्ञान की ऊंझा
आओ इस तट पर सम हो लेते है
आओ अपने "मैं " से "हम" हो लेते है !