भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काँच के घट / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 15 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज जैन 'मधुर' |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
काँच के घट हम
किसी दिन
फूट जाएँगे।
●
उम्र-काठी
काटती
दिन-रात
आरी।
काल के
कर में
प्रत्यंचा
है हमारी।
प्राण के सर ,
देह धनु से,
छूट जाएँगे।
●
योगियों ने
कह
दिया
ज्ञानावधि से।
देह -नौका
तारती है
भव
जलधि से।
डाल के फल हम
किसी दिन
टूट जाएँगे।
●
सब चराचर
भोगते हैं
कर्म
का फल।
मोक्ष अंतिम
लक्ष्य है
हर जीव
का हल।
पल न साधे
तो नटेश्वर
लूट जाएँगे।