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ज़ियादा चुप ही रहे वो / सुरेश चन्द्र शौक़

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ज़ियादा चुप ही रहे वो कभी— कभी बोले

मगर जो बोले तो ऐसे कि शायरी बोले


कहे बग़ैर ही कह दे जो अपने दिल की बात

कभी निगाह कभी उसकी ख़ामुशी बोले


वो लब—कुशाई, वो अन्दाज़े—गुफ़्तगू उसका

फ़ज़ा में चार तरफ़ जैसे नग़मगी बोले


हम एक बार अगर दोस्त बन गए हैं तो अब

न फ़ाइदा न ज़ियाँ सिर्फ़ दोस्ती बोले


जिसे भी देखो वही तल्ख़ियाँ उगलता है

कोई तो प्यार के दो बोल भी कभी बोले


जहान भर का तक़द्दुस करे क़दम—बोसी

वो आँखें बंद किये जब भी आरती बोले


वो गुदगुदाते हुए दिल वो राज़ की बातें

जब इक सखी से अकेले में इक सखी बोले


ये कुल दियार है ख़ुद—साख़्ता ख़ुदाओं का

किसी से क्या यहाँ इक आम आदमी बोले


अदावतों का बयाँ ‘शौक़’! हर कोई समझे

महब्बतों की ज़बाँ अब कोई—कोई बोले


लब—कुशाई=बात करने के लिए होंठ खोलना;अन्दाज़े—गुफ़्तगू==बात करने का ढंग;ज़ियाँ=हानि; तक़द्दुस=पवित्रता; क़दमबोसी=पैर चूमना;दियार=इलाक़ा;ख़ुदसाख़ता =ख़ुदा=स्वयं को परमात्मा कहने वाले;अदावत=शत्रुता