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ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा
मेरा ग़म भी बयान तक पहुँचा
लौट आई परों में फिर जुम्बिश
हौसला जब ज़बान तक पहुँचा
अपनी आँखों में घर के ख़्वाब लिए
इक मुसाफ़िर मकान तक पहुँचा
तीर था तू जो मेरे तरकश का
कैसे उसकी कमान तक पहुँचा
उसकी ख़ुशबू हवाओं में फैली
जब सुख़न क़द्रदान तक पहुँचा
ये भी तो शे‘र का करिश्मा है
‘द्विज’ भी सारे जहान तक पहुँचा