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महँगाई-भत्ता / जय चक्रवर्ती
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बहुत दिनों के बाद बढ़ा
कुछ महँगाई भत्ता
हरा हुआ जीवन की
बगिया का पत्ता-पत्ता
जोड़-घटाना, गुणा-भाग का
दौर चला दिन-भर
गणित गृहस्थी का आया
थोड़ा आसान नज़र
ऐसा लगा मिली हो जैसे
दिल्ली की सत्ता
नहीं रुकेगा ‘बड़की’ का
अब बी ए बिन पैसे
घर का खर्च चला लेगी
पत्नी जैसे-तैसे
बनवा देंगे ‘छुटकी’ को भी
कुछ कपड़ा- लत्ता
मुन्ने को विद्यालय का
रिक्शा लगवा देंगे
हम बूढ़ी –साइकिल से
अपना काम चला लेंगे
हमे कहाँ जाना रहता है
दिल्ली-कलकत्ता!
महँगाई मे ‘महँगाई-भत्ता‘ ही
क्या कम है!
जीवन के दुखते घावों पर
कुछ तो मरहम है
वेतन तो लगता है
जैसे बर्रै का छत्ता