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यूँ निचोड़ा वक़्त ने / जय चक्रवर्ती

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यूँ निचोड़ा वक़्त ने
तन हुआ सूखी झील जैसा

सुबह से शाम तक
बंटते रहे
हर रोज रिश्तों मे
कभी इस पर
कभी उस पर हुए हम
खर्च किस्तों मे
घर रहा फरमाइशों की,
जिदों की तहसील जैसा

लिए ईमान की पोथी
भटकते
हम फिरे दर-दर
मिली हर पाठशाला मे
ये पुस्तक
कोर्स से बाहर
मिला अक्सर दोस्तों का प्यार
‘मिड-डे-मील’ जैसा

उगे वन नागफनियों के
जहाँ
बोया गुलाबों को
सजाते तो कहाँ
आखिर
सजाते अपने ख्वाबों को!
फूल जैसा प्रश्न,
उत्तर जंग-खाई कील जैसा