यह वसंत की रात
हवाएं महक रहीं हैं मद्धिम-मद्धिम
छत पर हम-तुम
और दूर से
गंध आ रही किसी फूल की
औचक छू जाना उँगली का
याद आ रही उसी भूल की
यह वसंत की रात
हो रही उधर फागुनी रिमझिम-रिमझिम
रात वही यह
पंचपुष्प खिलते जब गुपचुप
अँधियारे में
संज्ञाएँ तैरतीं ताल में हैं अमृत के
और कभी पिघले पारे में
यह वसंत की रात
गायें हम देह-राग मिलकर फिर आदिम