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चलो घर की ओर, सजनी / कुमार रवींद्र
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चलो घर की ओर
सजनी
चाँद शायद हो वहाँ छत पर
हम यहाँ
इस घुप अँधेरे में खड़े हैं
दूर तक
टूटे समय के आँकड़े हैं
टेरता है
हमें रह-रह
आँगने के देवता का स्वर
साथ हमने
चाँदनी का एक बिरवा था लगाया
रहा घर पर
उसी का जादुई साया
वहीं से तो
अभी, सजनी
सगुनपंछी गया उड़कर
झरी जिस दिन
धूप कनखी से तुम्हारी
उसी दिन थी
उगी कोंपल भी कुँवारी
मिलेंगे घर में
हमें हँसते
पुराने ढाई आखर