भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घुप अँधियारे में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:22, 30 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घुप अँधियारे में
सपनों ने
लिया तुम्हारा नाम - हँसे
 
समझ गये हम
ली है तुमने अँगड़ाई सोते-सोते
हमने देखा आसमान में
तारों को आपा खोते
 
फूली कहीं
रात की रानी
और देह में गीत बसे

पूनो नहीं - अमावस है यह
फिर भी सागर उमड़ रहा
भीतर एक नेह का सोता
ऊभ-चूभ कर खूब बहा
 
हम भी लेटे रहे
सेज पर
बाँहों में ऋतुराज कसे
 
मीठी छुवन अँधेरे की है
और तुम्हारी भी, सजनी
हम दोनों के बीच बसी जो
महक हुई है और घनी
 
अंग-अंग में
बिना देह के
देवा के हैं बान धँसे