रँग गुलाल के
गाल तुम्हारे
और उँगलियाँ इन्द्रधनुष हो गईं हमारी
फागुन-आये
बरस-दर-बरस यह ही होता
उमग-उमग पड़ता सीने में
रँग का सोता
और वहीं से
फूट निकलती
अनबूझे गीतों की, सजनी, नदी कुँवारी
दरस-परस की
यह अनहोनी घटना ही तो
याद हमें आती रह-रहकर
हर दिन, मीतो
एक देवता
बिना देह का
भर देता है खुशबू से हर छुवन तुम्हारी
फाग और रसिया की तानें
बजतीं भीतर
देह हमारी हो जाती
रंगों का निर्झर
उभ-चूभ उसमें
हम होते
मीठी लगतीं वे साँसें भी जो हैं खारी