भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो तो, सजनी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:26, 30 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सुनो तो, सजनी
गा रही बरखा बिहारी के नये दोहे
कोर्स में हमने पढ़े थे
ये नहीं वे
खोजकर लाई इन्हें
बरखा कहीं से
गाओ तुम भी
साँस भीगी उसी सुर की बाट है जोहे
लॉन पर मोती बिछे हैं
इधर बाहर
हँस रहा चंपा
उन्हें नीचे गिराकर
लड़ी है लटकी
इन्द्रधनुषी डोर में हैं वे गये पोहे
एक धुन मीठी बसी जो
देह में है
उसी की तो लय, सखी
इस मेंह में है
सुर वही हों
तान होवे सँग तुम्हारी - सृष्टि भी मोहे