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एक गुलाबी ख़त / कुमार रवींद्र

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मिला
पुरानी पोथी में कल
             एक गुलाबी ख़त

पता नहीं कब का लिक्खा था
तिथि थी नहीं पड़ी
यही ज़िक्र था
पूरे दिन बरखा की रही झड़ी

यह तय था
वह सरला ने था लिखा
                   जवाबी ख़त

उसे छुआ
छूते ही रुनझुन देह हुई सारी
बसी उँगलियों में
छुवनों की याद कोई न्यारी

पूरा दिन महका
बहका भी
             पढ़ा शराबी ख़त

उसमें भूले-बिसरे दिन थे
मिठबोले आखर
उम्र-ढले के प्रश्न नहीं थे
ना ही ये पतझर

फाग हुई
इच्छाओं से था भरा
                  शराबी ख़त