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दिन गीतों के / कुमार रवींद्र
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सजनी, याद बहुत आते हैं
दिन गीतों के
बरसों पहले तुमने सिरजा था
कनखी से
और उन्हें दी थी उठान
मीठी अनखी से
हँसी तुम्हारी दोहराते हैं
दिन गीतों के
छुवन फूल की
इन गीतों में बसी हुई है
झुर्री हुई देह उसने फिर
रात छुई है
किसी पुरा-धुन में गाते हैं
दिन गीतों के
तुमसे ही है
धूप-दीप-सा यह अपना घर
हमने बीजे सँग-सँग
इसमें ढाई आखर
किसने कहा - गुज़र जाते हैं
दिन गीतों के