वार्तिक:
सखी लोग रामकलेवा का समय में कहल हाँ लोग रामजी से बबुआ तोहार बहिन साधु के साथ में चल गइली से हम सुनत रहली हाँ। खुद देखत बानी तोहार बाबूजी गोर, तूं साँवर, अबहीं। तोहरा घर के रीति नीमन ना भइल हाँ।
कवित्त:
अवध नगर के मझारी, राम नर तन अवतारी; मुनि संग में पगुधारी, करी मिथिला ससुरारी है।
हँसत नर-नारी, ससुर-सार-सरहज-सारी; मुँह पर देत सब गारी, कलिकाल तक जारी है।
जस गावत बेद चारी बीर रावण के मारी; अनेक पापिन के तारी, द्विज-सन्तन-हितकारी है।
कहत दियरा के ‘भिखारी’ जिन हरेक रूपधारी, जे कविता निन्दाकरी से हमारी रिस्तदारी है।