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गगन-गगन ब्रह्मांड / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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वो फैला है
ये इकट्ठा है
इसीलिए ठट्ठा है
क्या मजा है
कभी मुसकराता है
कभी अफसोस से
सिर हिलाता है
क्या पढ़ पाओगे
ये खाली किताब
पन्ने उड़ रहे
यहाँ-वहाँ
कौन लिखेगा
इस अंधकार की
स्याही घोटकर
बूँद-बूँद टपकती है
विचार गहराता है
अहं थरथराता है
कौन धारेगा
इस ज्ञान-गंगा को
कौन खींचेगा
लकीर पथ की?
चलो
मिलो
गागर में
सागर में
सोच बजबजाती है
नगाड़ा घनघनाती है
संकेत दौड़ रहे
ग्रहों-नक्षत्रों से
आकाशगंगा तक
घूम रहा
ये सब
घूम रहा
फैलता-सिकुड़ता
साँस लेते दिल की तरह
कौन भरता है हवा
इसे चलाने के लिए
इसे उड़ाने के लिए
इसकी सीमाओं से दूर
पकड़ो शब्द
इकट्ठी करो वर्णमाला
गले में डाल
बजाओ ढोल
ताक धिना-धिन
ताक धिना-धिन
ताक-धिना-धिन
हिल ना जाए
जब तक ब्रह्मांड!