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धीरे धीरे रे मना / सरस दरबारी

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धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
सदियाँ बीत गईं इसी इंतज़ार में
कि हाशिये से हटकर
एक मुकम्मल वजूद बन पाऊँ मैं,
कि जैसे तिल तिल जीती आई हूँ
तुम्हारे दिये दुखों में –
तुम भी जियो!

कि मुझे दिल समझो देह नहीं
कि मुझे पहचानों
धुरी हूँ मैं तुम्हारे घर की
तुम्हारे वंश की तारणहार हूँ ।
नागिन सी सदा उठ खड़ी हुई हूँ,
तुम्हारे और विपदाओं के बीच
पहचानो मेरी शक्ति
कि मैं शक्ति स्वरूपा हूँ
और अब भी नहीं मानते मेरी अहमियत
तो मैं तुम्हारा बहिष्कार करती हूँ
मुझे तुम्हारी नहीं,
तुम्हें मेरी ज़रूरत है
फिर भी तुम्हारे अहम को पोसा
कि चेत जाओगे अब!
पर तुम न चेते
मेरी दया को मेरी मजबूरी
और सहनशीलता को अपनी शक्ति समझा
जाओ कर लो दंभ उस शक्ति पर
हासिल कुछ भी न कर सकोगे।
तुम्हारी ताक़त रही हूँ मैं –
तुम्हारे दंभ के तेल को बाती बनकर
मैंने रौशन किया है –
जाओ नहीं बनती मैं वह बाती
प्रज्वलित कर लो अपना दंभ
कर सकोगे!