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अबकी मुझे चादर बनाना / अनुराधा सिंह

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माँ ढक देती देह
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़ कर सोना चाहिए’
सेहरा बाँधे पतली मूँछवाला मर्द
मुड़कर आँख तरेरता
राहें धुँधला जाती पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कीकर
अनचीन्हें चेहरे वाली औरत खींच देती
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएँ दबीं ढकीं ही नीकीं’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती
माँ, अबकी मुझे देह नहीं
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का तावीज़ बाँध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूँक देना
बुनते समय
रंग बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिनमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकतीं हों गिलट की पायलें
माँ, अबकी मुझे देह नहीं चादर बनाना
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ़
जंगल की तरफ
साँस लेती हो
सिंकती हो मद्धम मद्धम
धूप और वक़्त की आँच पर